Movie Review: जीवन के संघर्ष की कहानी है 'ट्रैप्ड' - JBP AWAAZ

Breaking

Friday, 17 March 2017

Movie Review: जीवन के संघर्ष की कहानी है 'ट्रैप्ड'

फिल्म का नाम : ट्रैप्ड
डायरेक्टर: विक्रमादित्य मोटवानी
स्टार कास्ट: राजकुमार राव, गीतांजली थापा
अवधि: 1 घंटा 42 मिनट
सर्टिफिकेट: U/A
रेटिंग: 3.5 स्टार
डायरेक्टर विक्रमादित्य मोटवानी ने 'लूटेरा' और 'उड़ान' जैसी बेहतरीन फिल्मों का डायरेक्शन किया है साथ ही 'फैंटम' फिल्म के बैनर तले कई फिल्में प्रोड्यूस भी की हैं और अब एक बार फिर से विक्रमादित्य ने अलग तरह के सब्जेक्ट पर काम करके फिल्म बनाई है, जिसमें उन्होंने बेहतरीन एक्टर्स में से एक राजकुमार राव को लिया है, कैसी बनी है यह फिल्म, इसका पता लगाने के लिए आइ समीक्षा करते हैं.
कहानी 
यह कहानी मुंबई के रहने वाले बैचलर शौर्य (राजकुमार राव) की है जो एक ऑफिस में काम करता है और ऑफिस की लड़की नूरी (गीतांजली थापा) के साथ जिंदगी गुजारने के लिए अपने बैचलर पैड को छोड़कर नया घर लेने की तलाश में निकलता है लेकिन वो नए घर के चक्कर में फंस जाता है. एक बन रही बिल्डिंग में ब्रोकर उसे झांसा देकर घर दे देता है और फिर शुरू हो जाती है कहानी. एक ऐसा घर जहां ना पानी है और ना ही बिजली, ऐसे में शौर्य कैसे उस इमारत से बाहर निकलने की जुगत लड़ाता है, ये पता करने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी.
जानिए आखिर फिल्म को क्यों देख सकते हैं
फिल्म राजकुमार राव की बेहतरीन परफॉर्मेंन्स आपको हरेक पल में उस किरदार के बारे में सोचने के लिए विवश करती है और आप उसके भीतर चल रहे इमोशंस से कनेक्ट कर पाते हैं. 102 मिनट तक एक ही एक्टर को आप अगर स्क्रीन पर देखते रह जाते हैं तो कहीं ना कहीं बोरियत भी होती है लेकिन राजकुमार ने अपनी परफॉर्मन्स के हिसाब से अद्भुत काम किया है जो आपको बांधे रखता है और सोचने पर विवश भी करता है.
-फिल्म का प्लॉट काफी सिम्पल रखा गया है जो की देखने में फ्री फ्लो नजर आता है.
-बेवजह के गानों से मुक्त है यह फिल्म, जिसकी वजह से आपको देखते वक्त कोई भी अड़चन नजर नहीं आती, या फिर आप किसी अनचाहे ब्रेक पर थिएटर के बाहर नहीं जाते.
-फिल्म बिना इंटरवल के रिलीज की गई है जिसकी वजह से आप कहानी के जोन में बने रहते हैं.
-फिल्म की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है और साथ ही लोकेशन कमाल की है.
-फिल्म देखते वक्त ये यकीन हो जाता है की साईंस में पढ़ाया गया लैमार्क और डार्विन का नियम कितना सही है.
कमजोर कड़ियां 
फिल्म की कमजोर कड़ी इसकी रफतार है जिसे और छोटी की जा सकती थी, साथ ही इसमें कुछ लंबे लंबे सीन हैं जो फिल्म फेस्टिवल्स के हिसाब से तो ठीक हैं लेकिन आजकल भाग दौड़ी के जमाने की जनता शायद जल्दी वाला रिजल्ट चाहती है, तो फिल्म में ज्यादा ठहराव शायद इसका माइनस पॉइंट बन जाए.
टिपिकल हिंदी फिल्मों की तरह किरदारों को ज्यादा सजाया धजाया नहीं गया है और साथ ही वो मसाला, कॉमेडी या आइटम नंबर्स नहीं हैं, जो की आजकल के फिल्मों में इस्तेमाल किये जाते हैं, जिसकी वजह से शायद एक तपका इस फिल्म से इत्तेफाक ना रख पाए.
बॉक्स ऑफिस
वैसे तो फिल्म की शूटिंग मुम्बई के एक अपार्टमेंट में 25 दिन के भीतर ही पूरी की जा चुकी थी और बजट काफी कम है और फिल्म के डिजिटल और ओवरसीज को मिला लें तो रिलीज के बाद रिकवरी करना आसान होगा.

No comments:

Post a Comment

Whatsapp status