महाभारत के युद्ध में बहुत से शूरवीरों ने अपने प्राणों के आहुति दी थी। यह एक ऐसा युद्ध था जिसने कुरुक्षेत्र की धरती को रक्त-रंजित कर दिया था। इतना खून बहा था कि आज भी वहां की मिट्टी का रंग लाल है... ये कुछ ऐसे तथ्य हैं, जिनसे हर कोई परिचित है।
सवाल
लेकिन ऐसा सवाल है, जो बहुत सोचने को मजबूर करता है। अगर वाकई ये सब सच है तो उन शवों का क्या हुआ... जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र के युद्ध में अपने प्राण गवाए थे उनके शवों का अंतिम संस्कार कैसे हुआ...?
रामसेतु
श्रीराम ने रामसेतु का निर्माण करवाया था, इस तथ्य के साक्ष्य के रूप में वैज्ञानिकों वह पुल खोज लिया। लेकिन महाभारत का वो भयंकर युद्ध वाकई घटित हुआ था इसके कोई प्रमाण आज तक हासिल क्यों नहीं हो पाए।
सवालों का जवाब
ने इन सवालों का जवाब ढूंढ़ते हुए कुछ ऐसी बाते हाथ लगी जिनपर विचार किया जा सकता है।
कुरुक्षेत्र
कुरुक्षेत्र के युद्ध में मारे गए सैनिकों और योद्धाओं के शव या अस्थियां इसलिए हासिल नहीं हुई होंगी क्योंकि आज के दौर में भले ही मारे गए दुश्मन के शव के दुर्व्यवहार किया जाता हो लेकिन पहले ऐसा नहीं होता था।
महाभारत का युद्ध
महाभारत का युद्ध दिन ढलते ही रोक दिया जाता था तो जो जिन लोगों के शव भूमि पर होते थे उनका अंतिम संस्कार किया जाता होगा या फिर उनके शवों को उनके परिवार को सौंप दिया जाता होगा। अंतिम संस्कार के बाद तो सिर्फ राख ही बचती है।
कुरुक्षेत्र की भूमि
अमल नंदन, जिन्होंने कुरुक्षेत्र के पौराणिक इतिहास विस्तृत अध्ययन किया है, का कहना है कि उत्तरायन के दिन जब भीष्म पितामाह ने अपनी अंतिम सांस ली थी, उस दिन युद्ध समाप्त होने के बाद कुरुक्षेत्र की भूमि को जला दिया गया था। ऐसा इसलिए किया गया था ताकि हर मृत योद्धा को स्वर्ग में जगह मिले और उनके शवों का शुद्धिकरण हो जाए।
महाभारत की घटना
महाभारत के युद्ध में बहुत कुछ हुआ था जिस पर विश्वास करना कठिन है। शायद यही वजह है कि आज भी बहुत से लोग इसे कल्पनाओं का परिणाम करार देते हैं।
कहानी
एक ऐसी ही कहानी आज हम आपको सुनाएंगे जिसपर विश्वास करना कठिन है।
भीम
युद्ध में जीतने के बाद एक दिन भीम ने आवेश में आकर धृतराष्ट्र को बहुत सी कड़वी बातें कह दीं, जिन्हें सुनने के बाद धृतराष्ट्र उन्हें पलटकर जवाब तो नहीं दे सके लेकिन उसी क्षण उन्होंने वनवास का निर्णय कर लिया।
धृतराष्ट्र
उनकी पत्नी गांधारी, जिसने हर कदम पर अपने पति का साथ निभाने का निश्चय किया था, ने भी धृतराष्ट्र का हाथ थाम वन में जाने का निर्णय ले लिया।
वन जाने का निर्णय
धृतराष्ट्र और गांधारी के साथ विदुर और संजय ने भी उनके साथ जाने का निश्चय कर लिया। वन के लिए प्रस्थान करने से पहले धृतराष्ट्र ने अपने सभी पुत्रों और युद्ध में मारे गए अन्य परिजनों के श्राद्ध के लिए युधिष्ठिर से धन मांगा लेकिन भीम ने उन्हें धन देने से मना कर दिया।
वन के लिए प्रस्थान
लेकिन युधिष्ठिर ने उन्हें पर्याप्त धन देकर श्राद्ध का आयोजन संपन्न करवाया, जिसके बाद वे सभी वन जाने के लिए निकल गए।
पांडवों का आग्रह
धृतराष्ट्र, गांधारी, संजय और विदुर को वन जाते हुए देख कुंती ने भी राज-पाठ छोड़ उनके साथ जाने की ठान ली। पांडवों के आग्रह के बाद भी वह नहीं रुकीं और वन चली गईं।
तपस्या
धृतराष्ट्र ने तपस्या करने का निर्णय ले लिया और वे दिन-रात तप में लगे रहते। संजय और विदुर ने गांधारी और कुंती की सेवा करनी शुरू कर दी।
द्रौपदी
करीब एक वर्ष बाद युधिष्ठिर ने अपने प्रियजनों से मिलने के लिए वन जाने की ठानी और उनके साथ हस्तिनापुर के निवासी और अन्य सभी पांडवों समेत द्रौपदी भी वन की ओर चल पड़ीं।
विदुर के प्राण
धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती अपने परिवार को देखकर बहुत खुश हुए लेकिन आश्रम में इतने सारे लोगों को देखकर विदुर वापस लौट गए। युधिष्ठिर उनसे मिलने गए लेकिन रास्ते में ही विदुर के प्राण निकलकर युधिष्ठिर के शरीर में प्रविष्ट हो गए।
वेद व्यास
अगले दिन वेद व्यास आश्रम में आए तो उन्हें विदुर के निधन का समाचार मिला। वेद व्यास ने बताया कि विदुर यमराज के अवतार थे और युधिष्ठिर में भी उन्हीं का अंश है इसलिए विदुर की आत्मा युधिष्ठिर में समा गई। वेद व्यास ने सभी जनों से कहा कि आज वह सभी को अपनी तपस्या का प्रमाण देंगे इसलिए उन्हें जो वर चाहिए वह मांग लें।
योद्धाओं का आह्वान
सभी ने एकमत होकर कहा कि वह एक दिन के लिए ही सही लेकिन महाभारत के युद्ध में मारे गए अपने प्रियजनों को फिर से एक बार देख सकें। रात होने ही महर्षि व्यास गंगा नदी के अंदर चले गए और युद्ध में मारे गए दोनों पक्षों के योद्धाओं का आह्वान किया।
दिव्य नेत्र
थोड़ी ही देर में भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, दुःशासन, अभिमन्यु, धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, घटोत्कच, द्रौपदी के पुत्र, पिता और भाई, शकुनि, शिखंडी आदि सभी शूरवीर नदी से बाहर निकल आए। पहली बार इनमें से किसी के भी मन में अहंकार, ईर्ष्या या क्रोध नहीं था।
वेदव्यास
वेदव्यास ने धृतराष्ट्र व गांधारी को भी अपने दिव्य नेत्र प्रदान किए ताकि वह भी अपने परिजनों को देख सकें।
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