बहुत बार देखा गया है कि मंदिर में भजन कीर्तन के समय ध्यान मुद्रा में बैठे लोग तालियां बजाते हैं।ताली बजाते समय व्यक्ति एक अलग ही दुनिया में पहुंच जाता है। आमतौर पर भगवान की स्तुति करने वक्त ताली बजाने का प्रचलन है। सामान्यत: हम किसी भी मंदिर में आरती के समय सभी को ताली बजाते देखते हैं और हम खुद भी ताली बजाना शुरू कर देते हैं। ऐसे कई मौके होते हैं जहां ताली बजाई जाती है। किसी समारोह में, स्कूल में, घर में आदि स्थानों पर जब भी कोई खुशी और उत्साह वाली बात होती है हम उसका ताली बजाकर अभिवादन करते हैं लेकिन ताली बजाते क्यों हैं?
काफी पुराने समय से ही ताली बजाने का प्रचलन है। भगवान की स्तुति, भक्ति, आरती आदि धर्म-कर्म के समय ताली बजाई जाती है। ताली बजाना एक व्यायाम ही है, ताली बजाने से हमारे पूरे शरीर में खिंचाव होता है, शरीर की मांसपेशियां एक्टिव हो जाती है। जोर-जोर से ताली बजाने से कुछ ही देर में पसीना आना शुरू हो जाता है और पूरे शरीर में एक उत्तेजना पैदा हो जाती है। हमारी हथेलियों में शरीर के अन्य अंगों की नसों के बिंदू होते हैं, जिन्हें एक्यूप्रेशर पाइंट कहते हैं। ताली बजाने से इन बिंदुओं पर दबाव पड़ता है और संबंधित अंगों में रक्त संचार बढ़ता है। जिससे वे बेहतर काम करने लगते हैं। एक्यूप्रेशर पद्धति में ताली बजाना बहुत अधिक लाभदायक माना गया है। इन्हीं कारणों से ताली बजाना हमारे स्वास्थ्य के बहुत लाभदायक है।
हिंदू धर्म में आरती के दौरान ताली बजाना(कर्तल ध्वनि) एक स्वाभाविक क्रिया मानी जाती है। मंदिर हो या कोई अन्य पूजा स्थल, जहां भी आरती संपन्न हो रही होती है वहां पर श्रद्धालु आदतन ताली अवश्य बजाते हैं। प्रायः किसी उत्सव, जन्मदिन या संत समागम के दौरान भी हर्षोल्लास के साथ कर्तल ध्वनि पैदा की जाती है। आमजन किसी के उत्साहवर्धन के लिए भी ताली का प्रयोग करते हैं।
सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार केवल आरती के मध्य ही कर्तल ध्वनि उत्पन्न करना उपयुक्त पद्धति है। ऐसे श्रद्धालु जो अभी ध्यान की आरंभिक अवस्था में हैं, वह ताली को एक निश्चित क्रम में सहज भाव से बजाएं ताकि कर्ण प्रिय ध्वनि उत्पन्न हो तथा आरती के साथ उसका बेहतर संयोजन हो सके। किंतु ध्यान की उच्चतर अवस्था में अवस्थित श्रद्धालु ताली के स्थान पर सामने की ओर देखते हुए नेत्रों की अर्धनिमीलित स्थिति में आत्मनिमग्न हों तो ज्यादा अच्छा माना जाता है।
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