तीन दशक बाद शिमला और हमीरपुर से निकली हिमाचल की सियासत - JBP AWAAZ

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Monday, 25 December 2017

तीन दशक बाद शिमला और हमीरपुर से निकली हिमाचल की सियासत

तमाम उठापटक और कयासों के बीच भारतीय जनता पार्टी ने जयराम ठाकुर को हिमाचल प्रदेश के नए मुख्यमंत्री के रूप में चुन लिया. अपने नाम की घोषणा के बाद सिराज से विधायक जयराम ने कहा कि कांग्रेस मुक्त हिमाचल का हमारा सपना पूरा हो गया. लेकिन शायद एक सपना जनता का भी पूरा हुआ है. हिमाचल में सत्ता परिवर्तन से नहीं, बल्कि सत्ता का केंद्र बदलने से.

पिछले तीन दशकों से हिमाचल प्रदेश की राजनीति दो बड़े परिवारों के इर्द-गिर्द घूमती रही है. इनमें एक नाम कांग्रेस के वीरभद्र सिंह और दूसरा नाम बीजेपी के प्रेम कुमार धूमल का है. हिमाचल में 1985 के बाद हर विधानसभा चुनाव में सत्ता परिवर्तन हुआ है. राज्य की जनता एक बार बीजेपी पर जीत का ताज पहनाती है तो अगली बार कांग्रेस को सिंहासन मिलता है. लेकिन सूबे के मुखिया के तौर पर बार-बार पलटकर दो चेहरे ही नजर आते रहे. कांग्रेस की सरकार आई तो शिमला के वीरभद्र सिंह सीएम बने, बीजेपी ने सत्ता वापसी की तो कमान हमीरपुर के प्रेम कुमार धूमल के हाथों में पहुंच गई. हालांकि, बीच में एक बार छोटे वक्त के लिए शांता कुमार को भी सीएम बनने का मौका मिला. लेकिन 1993 से लगातार यही सिलसिला जारी था.

इस बार सरकार बदलने के साथ ही मुखिया भी बदला है. तीन दशकों में पहली बार वो मौका आया है, जब हिमाचल की सियासत शिमला और हमीरपुर से शिफ्ट होकर कहीं और पहुंची है.

हालांकि, दोनों ही नेता हिमाचल में अपना बड़ा वजूद रखते हैं. हिमाचल की राजनीति में दोनों नेताओं का हमेशा से डंका बजता रहा है. हालांकि, कांग्रेस के वीरभद्र सिंह, प्रेम कुमार धूमल से न सिर्फ उम्र में बड़े हैं, बल्कि राजनीतिक रूप से वो भी धूमल से ज्यादा कद्दावर माने जाते हैं. लेकिन इस बार सूबे के इन दोनों सियासी सूरमाओं को स्ट्रोक लगा है. वीरभद्र सिंह अपने नेतृत्व में जहां कांग्रेस को जीत की दहलीज तक नहीं पहुंचा सके और पार्टी को 68 में सिर्फ 21 सीट ही जीत सकी. वहीं प्रेम कुमार को सीएम कैंडिडेट घोषित करने पर बीजेपी को 44 सीटों के साथ सरकार बनाने के लिए स्पष्ट बहुमत तो मिल गया, लेकिन धू्मल खुद अपनी सीट हार गए.

यही हार उनके सियासी सफर पर मानो विराम लगा गई. लाख कोशिशों के बाद उन्हें सीएम नहीं बनाया गया. हालांकि, दिल्ली बुलाने के आवश्वासन की बात जरूर सामने आई है. वहीं, 83 साल के हो चुके वीरभद्र के लिए अगले चुनाव का इंतजार थोड़ा मुश्किल नजर आता है. मौजूदा चुनाव में ही उन्हें युवा नेताओं की चुनौती का सामना करना पड़ा. ऐसे में दोनों राष्ट्रीय दलों के दो बड़े सियासी दिग्गजों को अब 'घरेलू मैच' खेलने की इजाजत मिले, ये कम नजर आता है. साथ ही उनकी उम्र का पड़ाव, केंद्र की सत्ता के अनुकूल भी नजर नहीं आता.

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